श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार वह व्यक्ति थे, जिनकी धर्म में सच्ची आस्था थी और जिन्होंने सच्चे अर्थ में धर्ममय जीवन बिताया। सस्ती तथा सुन्दर पुस्तकों के रूप में लाखों-लाखों की संख्या में प्रकाशित गीता, रामायण तथा महान् उपनिषदों  के विभिन्न संस्करण शताब्दियों तक श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार के सर्वोत्तम स्मारक बने रहेंगे । वैदिक धर्म, हमारी प्राचीन संस्कृति एवं इस देश के महान् भविष्य के प्रति उनके प्रेम के ये जीवित स्मारक हैं।

मोरारजी देसाई

देश के पूर्व प्रधानमंत्री


मैं तीन दशकों से भी अधिक समय से श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार को ‘कल्याण’ में प्रकाशित उनके लेखों के माध्यम से जानता हूँ और मैं कह सकता हूँ कि श्रीपोद्दारजी का जीवन एक उत्थानकारी और महान् उद्देश्य के प्रति पूर्ण समर्पित था एक सच्चा हिन्दू जो कुछ बनने की आकांक्षा कर सकता है, उसका सुन्दर उदाहरण था। मैं श्रद्धाञ्जलि ग्रन्थ की पूर्ण सफलता की कामना करता हूँ।

महाराजाधिराज श्री नेपाल नरेश


श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार से मेरी प्रथम भेंट १६३२-३३ में गोरखपुर में हुई, जब भारतीय प्रशासनिक सेवा में आने के बाद अपने सेवाकाल के प्रथम वर्ष में मैं गोरखपुर में नियुक्त हुआ। दैव प्रकोप से उस वर्ष गोरखपुर जनपद में भीषण बाढ़ आ गयी। गोरखपुर शहर को भी उससे खतरा होने लगा।  श्रीहनुमानप्रसादजी के नेतृत्व में गीता प्रेस ने गृहविहीन हजारों-हजारों लोगों की बड़े प्रभावशाली ढंग से सेवा की। उसकी सेवा करने की पद्धति सर्वथा आडम्बर रहित थी । निस्संदेह यह उनका दृढ़ धार्मिक विश्वास ही था, जो उनके जीवन को अपने भाई-बहिनों की ऐसी निःस्वार्थ सेवा के लिये प्रेरित करता था । गीताप्रेस के कार्यों का पथ-प्रदर्शन एवं निर्देशन कर उन्होंने असंख्य लोगोंको जो लाभ पहुँचाया, उसका मूल्यांकन करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं।

एस० रंगनाथन

कम्प्ट्रोलर तथा आडीटर-जनरल भारत सरकार, नयी दिल्ली


परम पूज्य ताऊजी (परम श्रद्धेय श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार) के वात्सल्य भरे हृदय की जो एक परम मधुर छवि मेरे मानस-पटलपर अंकित है, उसे ही लिखने का प्रयास कर रहा हूँ। सन् १९५७ के फरवरी मासकी बात है। मेरे पूज्य पिताजी (पूज्य श्रीजयदयालजी डालमिया) राजगंगपुर स्थित सीमेंट फैक्ट्री में किसी कार्य से गये हुए थे। वहाँ उनके पैर पर ट्राली गिर पड़ी। कलकत्ते में धाव का आपरेशन करना पड़ा । ताऊजी को जैसे ही पिताजी के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने का समाचार मिला, वे बहुत चिंतित हो उठे।

दर्द और दोष घटने के स्थान पर बढ़ ही रहा था। पुनः आपरेशन करना पड़ा पर यह दूसरी बार का ऑपरेशन भी असफल रहा। हारकर डाक्टरों ने कहना आरम्भ कर दिया कि शायद पैर का पूरा पंजा काटना पड़ जाय।  विदेश जाकर तीसरा ऑपरेशन करवाने का निर्णय लिया गया और उसकी तैयारी की जाने लगी।

इसी बीच, ताऊजी ने एक श्रेष्ठ विप्रवर को बुलाकर पिताजी के स्वास्थ्य  लाभ के लिये एक अनुष्ठान आरम्भ करवा दिया। उस अनुष्ठान में जप के लिये ताऊजी ने अपनी निजी रुद्राक्ष माला दी थी। जब तीसरी बार ऑपरेशन हुआ तो घाव के अन्दर से कोयले का एक बहुत छोटा-सा टुकड़ा निकला। उसके निकलते ही घाव भर गया और पिताजी स्वस्थ हो गये।

ताऊजी के उस अपार वात्सल्य, सफल देवाराधन, सतत हितचिन्तन और परोक्ष-प्रियता की बात जब याद आती है तो हृदय भर-भर आता है।

श्री विष्णुहरिजी डालमिया

प्रतिष्ठित भारतीय उद्योगपति और समाजसेवी


 गीताप्रेस में सहायक प्रबन्धक के रूप में मेरी नियुक्ति १८ जनवरी सन् १९४५ को हुई थी। ज्यों ही मैंने सहायक प्रबन्धक का कार्य-भार सँभाला, श्रीभाईजी ने मुझसे कहा- भैया ! अगर जीवन में सफल होना चाहते हो तो उसका एक बड़ा सुन्दर उपाय है। सबसे सदा नम्रता का व्यवहार करना। मधुर व्यवहार और मधुर बोलसे विकट परिस्थितियाँ दूर हो जाती हैं और कठिन कार्य सरल हो जाते हैं। मैंने गीताप्रेस में लगभग ४१ वर्ष तक काम किया और श्रीभाईजी की इस सीखने मुझे पद-पद पर सफलता प्रदान की।

श्रीदुर्गाप्रसादजी गुप्त


श्रीपोद्दारजी का भारतीय-संस्कृति-रक्षण का महाकार्य जीवन के अन्तिम क्षण तक चलता रहा। उनका शिष्ट, सात्विक तथा धार्मिक साहित्य का संवर्धन और वितरण निश्चय ही अनुपम एवं सर्वानुकरणीय है। भारत में ही नहीं, विश्व में भारतीय आध्यात्मिक साहित्यको दूर-दूर तक पहुँचाने में वे सफल रहे। संस्कृति- संरक्षण और पीड़ित जीवों की सहायता के सम्पूर्ण क्षेत्र में ही वे प्रेरणास्रोत हैं ही, किंतु गोरक्षा-कार्यमें  तो उनकी तन्मयता और संगठन-शक्ति देखकर लोग चकित रह जाते थे। उनकी महायात्त्रा से भारतीय संस्कृतिकी अपूरणीय क्षति हुई है। भगवान् उनके अनुयायियोंको अवशिष्ट कार्योंको पूरा करनेकी शक्ति प्रदान करें। इति शम् ।

श्रीमज्जगद्‌गुरु श्रीशंकराचार्य स्वामी श्रीअभिनवसच्चिदानन्द तीर्थजी महाराज

शारदापीठ, द्वारकापुरी


श्रीमान् हनुमानप्रसादजी पोद्दार देश के सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पुनर्जागरण रूप गगन के एक देदीप्यमान ज्योतिपुञ्ज थे । उनके सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों एवं ‘कल्याण’ तथा गीताप्रेस के माध्यम से उनसे परिचित अन्य देशों के श्रेष्ठ सम्मान के वे पात्र थे। उनका जीवन तपस्यामय था, जो गीताप्रेस के निर्माण और उसके प्रकाशनों को बहुजन-सुलभ बनाने के प्रति समर्पित था। जो कार्य उन्हें इतना प्रिय था, उसे गतिमान् रखना ही उस महान् आत्माके प्रति श्रेष्ठ श्रद्धाञ्जलि है।

जी० एस० ढिल्लों

(1969–1975) लोकसभा अध्यक्ष


श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार के निधन से हिन्दू-जाति और सनातन धर्मावलम्बियों ने अपना एक अदम्य उत्साही संरक्षक खो दिया है। गीताप्रेस और ‘कल्याण’ के माध्यम से उन्होंने नैतिक अभ्युत्थान और सनातन घर्म के प्रचार- प्रसारका जो महत्कार्य किया, वह उनके यशःशरीर को सदैव अक्षुण्ण रखेगा। पोद्दारजी एक महान् भक्त, धर्म- पालक और सदाचारके प्रतिष्ठापक थे। दीन-दुःखियों के प्रति उनके मन में सदैव दया रहती थी। ‘कल्याण’ और गीताप्रेस के विभिन्न प्रकाशनों की देश-विदेश में जो इतनी लोकप्रियता बढ़ी, वह उन्हीं के अध्यवसाय का फल है।

विभूतिनारायण सिंह, काशी नरेश


श्रीपोद्दारजी चले गये। इतना लोकोपकार जो वे करते थे, उसका क्या होगा ? सत्संग तो निर्जीव हो गया । संसार पापके गड्ढे में डूबता जा रहा है। उससे निकालने के प्रयत्न करने वाले तो वे ही थे। अब कोई नहीं है।

श्रीमनोहर कुमारी

कुँवरानी सीतामऊ राज्य (म० प्रदेश)


भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार गोमाता के परमभक्त थे। उनके लिये मेरे हृदय में सदा विशेष सम्मान रहा है और यह इससे समझा जा सकता है कि सन् १६४३में प्रकाशित मेरा ग्रन्थ ‘ब्रजभाषा का व्याकरण’ उन्हीं को सर्मापत हुआ है। महर्षि मालवीय, रार्जाष टण्डन तथा पोद्दारजी  को ही मैंने ग्रन्थ सर्पित किये हैं। इसी से समझिये कि उन्हें मैं किस कोटि में रखता था ।

आचार्य किशोरीदास बाजपेयी

हिन्दी भाषा के महान प्रणेता


पहली बार मुझे श्रीभाईजीका दर्शन सन १९२८ के प्रारम्भ में बीकानेर में हुआ था। वे नाम-प्रचार के उद्देश्य से विभिन्न स्थानों में भ्रमण करते हुए दो दिन के लिये वहाँ पधारे थे। उनका सर्वप्रथम भाषण सुनने पर मेरे मन में ऐसी छाप पड़ी कि वे जो कुछ कहते हैं, अनुभव के आधार पर कहते हैं, केवल पढ़ी-पढ़ायी अथवा सुनी-सुनायी बात नहीं कहते। जबतक वे बीकानेर में रहे, व्याख्यान के बाद भी मैं घंटों उनके पास बैठता और उनके साथ भगवद्विषयक चर्चा होती रहती। उनके इस प्रथम समागम का मन पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि स्वाभाविक ही उनके निकट सम्पर्क में कुछ दिन रहने की प्रबल भावना जाग्रत हुई। यह लालसा क्रमशः बढ़ती गयी और सन् १९२९ के ग्रीष्ममें मुझे उनके साथ गोरखपुरमें लगभग डेढ़ महीने रहने का दुर्लभ सुयोग प्राप्त हुआ। इस छोटी-सी अवधि में उनके भगवत्सम्बन्धी प्रौढ़ विचारों एवं अनुभवों को जानने तथा उनके भगवन्मय जीवन को अत्यन्त निकट से देखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ। उनके लोकोत्तर व्यक्तित्व का मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि दस-पन्द्रह दिन के बाद ही बुद्धि ने यह निर्णय ले लिया कि सब कुछ छोड़कर इन्हीं के चरणों में रहा जाय और शेष जीवन इन्हीं की छत्रछाया में बिताया जाय। यह निर्णय लेना मेरे लिये जितना सहज था, उसे कार्यान्वित करना उतना ही कठिन सिद्ध हुआ। मुझे बीकानेर छोड़ने में चार वर्ष लग गये और जनवरी सन् १९३३ में ही मैं अपने इस मनोरथ को पूर्ण कर पाया। वे मेरे बड़े भाई, सखा एवं स्वामी ही नहीं थे, मेरे पथप्रदर्शक, जीवन-सर्वस्व थे और हैं।

श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी (पूर्वसम्पादक ‘कल्याण’)


श्रीहनुमानप्रसाद जी पोद्दार देश के ऐसे महान् व्यक्ति थे, जिनके जीवन का एक विशिष्ट उद्देश्य था और उस उद्देश्य को उन्होंने जीवनमें पूर्णतया चरितार्थ करके दिखाया। देशमें आध्यात्मिक बातावरण के विस्तार में श्रीपोद्दारजी का नाम एवं कार्य सदा स्मरण किये जायेंगे। उन्होंने गीताप्रेस की धार्मिक पुस्तकों और ‘कल्याण’ पत्र के माध्यम से धार्मिक और सांस्कृतिक जागरण का महान् कार्य किया। वे स्वयं संस्था थे।

रामगोपाल माहेश्वरी

संचालक- ‘नवभारत’ नागपुर


श्रीहनुमानप्रसाद जी श्रीकृष्ण चरणों में सीन हो गये, यह जानकर मन अत्यधिक विचलित हुआ है। वे जब कलकत्ता में थे, तभी से में उनसे परिचित हूँ। कलकत्ता विश्वविद्यालय में, ‘बंगीय-साहित्य-परिषद्‌ में एवं अन्य प्रतिष्ठानों में उनसे मिलने का सुयोग हुआ था। वे बंगला-साहित्य के, विशेषतः वैष्णव-पदावली के परम अनुरागी और उसके भावों तक पहुँचने वाले पुरुष थे। सन् १६०५ में ‘बङ्ग-भङ्ग-आन्दोलन के समय उनके साथ आन्दोलन में योग देने का मुझे सुयोग हुआ था। उस समय की ‘अनुशीलन समिति’, युवक तथा विद्याथियों की निःस्वार्थ देश-प्रीति तथा ‘वन्दे मातरम्’ और गीता के मन्त्रों से अनुप्राणित वीर बङ्ग संतानों के मृत्यु-वरण से उनका चित्त देश-प्रेम की निष्ठा और गीता-अनुराग से भर उठता था। ऐसा लगता है कि वही भाव उनके गीता प्रचार का उत्स रहा है। आज वे हमारे मध्य नहीं है, तथापि उनका नाम और कार्य भारतवासीमाव सर्वदा स्मरण करेंगे।

श्री ज्योतिषचन्द्र घोष

सम्पादक, निखिल-भारत-बंगभाषा-प्रसार-समिति अगरतल्ला (पूर्वबंगाल)


परमपूज्य भाईजी के सम्बन्ध में क्या लिखूँ, क्या न लिखूं? मैं तो उनका ही था। उनका पितृतुल्य वात्सल्य प्रेम जीवनभर भूल न सकूंगा। आज में अनाथ हो गया हूँ। भविष्य में क्या होगा, यह श्रीराधामाधव ही जानें। वैसे हमारे परिवार का श्रीभाईजी से सन् १९२३-२४ से घर-जैसा सम्बन्ध था। मेरे ताऊजी श्रीबिहारीलाल जी पोद्दार एवं मेरे पिताजी श्रीजमनादास जी पोद्दार ने श्रीराधाधाम, बरसाना में जो मन्दिर, भवन, बाग एवं अन्य स्थान सन् १६३७-३८ में निर्माण करवाये थे, उसमें श्रीभाईजी की प्रेरणा ही हेतु थी।

श्रीभाईजी के स्वभाव की यह बड़ी विचिवता थी कि जिसे उन्होंने एक बार अपना कह दिया, उसे जीवनभर अपना मानते रहे. कभी उसके व्यवहार एवं बर्तावको नहीं देखा। दिल्ली में ‘श्रीराधिका सेवक समाज’ की स्थापना में श्रीभाईजी का आशीर्वाद एवं परामर्श मुख्य रहा है। हम सबका परम कर्तव्य है कि श्रीभाईजी जो मार्ग बता एवं दिखा गये हैं, उस पर चलें और मानव-जीवन- के चरम लक्ष्य को प्राप्त करें।

कपूरचन्द पोद्दार

संस्थापक धीराधिका सेवक समाज, दिल्ली


मुझे श्रीहनुमानप्रसाद जी पोद्दार को प्रायः उस समय से जानने का महान् सौभाग्य प्राप्त है, जब से वे गोरखपुर आये। ‘भाईजी’ सम्बोधन इसका प्रमाण है कि सभी के प्रति प्रेम, सहानुभूति और दया के कारण उन्हें कितना अधिक स्नेह और सम्मान प्राप्त था ।

तरुणावस्था के प्रारम्भ में क्रान्तिकारी के रूप में, प्रौढ़ावस्था में एक प्रकाण्ड विद्वान् और धार्मिक गुरु के रूप में तथा ढलती हुई आयु में सम्पर्क में आनेवाले सभी व्यक्तियों के लिये एक बड़े भाई के रूप में- इस प्रकार उनका सम्पूर्ण जीवन देश और मानवता की सेवा के निमित्त समर्पित था ।

डा० श्रीकेदारनाथ लाहिड़ी


‘कल्याण’ के माध्यम से मुझे श्रीभाईजी के ‘अमृतोपदेश’ पढ़नेका सौभाग्य प्राप्त होता रहा है। मुझ जैसे लोगों को ‘माया और मोह’ के कीचड़ से ऊपर उठाने में श्रीभाईजी ने जो उत्तम सेवा की है, उसके निमित्त उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु मेरे पास शब्द नहीं हैं। में उनकी अनुपस्थिति- में भी उन्हें अपना ‘गुरु’ मानता हूँ। उनके शब्द- ‘दूसरों की भावनाओं का उचित सम्मान करो, उनके पद का सम्मान करो, अपनी कमियों को देखते रहो और उन्हें दूर करने की चेष्टा करो, तव तुम देखोगे कि समस्त विश्व तुम्हारा ही है’- मेरा प्रकाश स्तम्भ की भांति मार्गदर्शन करते हैं।

मेरी दृढ़ धारणा है कि हमें श्रीभाईजी-जैसा महापुरुष मिलना कठिन है। उनके जाने से देश की जो क्षति हुई है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। आज के युग में देशवासियों को सही मार्ग दिखाने के लिये श्रीभाईजी-जैसे संतों की नितान्त आवश्यकता है।

श्री पी० एस० श्रीनिवासन्


परमपूज्य श्रीभाईजी के साथ मेरा क्या सम्बन्ध था, इसे मैं स्वयं ही ठीक-ठीक नहीं समझता। हाँ, इतना मैं अवश्य कह सकता हूँ कि मुझ जैसा एक तुच्छ प्राणीं उन्हें जितना अपना मान सका, उससे अनन्त गुना अधिक उन्होंने मुझे अपनाया। मैं श्रीभाईजी को अपना बड़ा भाई मानता हूँ और संत के रूप में अपना आराध्य। सन् १९७० की फरवरी में मैं गोरखपुर श्रीभाईजी के दर्शनार्थ गया। उन दिनों उनका स्वास्थ्य ढीला था। जब मैं वहाँ से लौटने लगा, तब श्रीभाईजी ने मेरा पैर छूना चाहा। मैंने कहा- भाईजी आप बड़े हैं तथा मैं आपको आराध्य मानता हूँ। श्रीभाईजी न माने। उन्होंने कहा- आप पण्डित हैं, पूज्य हैं। अन्त में विवश होकर मुझे उनका प्रणाम स्वीकार करना पड़ा। ऐसी थी उनकी ब्रह्मण्यता, ऐसी थी उनकी विनयशीलता।

पं. श्रीतारादत्तजी मिश्र (पूज्य श्रीराधाबाबाके पूर्वाश्रमके सहोदर भाई)


गीताप्रेस से प्रकाशित है ‘देवर्षि नारद’ और इस पुस्तक के लेखक हैं श्रीइन्द्रनारायणजी द्विवेदी। श्रीद्विवेदीजी के पास धनाभाव था और एक बार ये तीन सौ रुपया नहीं चुका सके। पाने वाले ने न्यायालय में मुकदमा दायर कर दिया। मुकदमें में श्रीद्विवेदीजी हार गये। बात तो सच्ची थी ही। इलाहाबाद में शनिवार को फैसला सुना दिया गया कि यदि आगामी सोमवार तक तीन सौ रुपया नहीं जमा किया गया तो श्रीद्विवेदीजी को साधारण जेल हो जायेगी।

श्रीभाईजी को मुकदमे का विवरण शनिवार की शाम को गोरखपुर में मालूम हुआ। मालूम होते ही श्रीभाईजी विह्वल हो गये और रातभर उनको नींद नहीं आयी। गीतावाटिका में सबेरे सत्संग होता था। गीताप्रेस के श्रीशुक्लाजी सत्संग में आये। वे कचहरी के काम के जानकार थे। आते ही श्रीशुक्लाजी को तीन सौ रुपया देकर विदा करते हुए श्रीभाईजी ने कहा- ट्रेन के पहुँचने का समय और कोर्ट का समय कुछ इस प्रकार है कि आप इलाहाबाद उस समय पहुँचेंगे जब कि कोर्ट का समय हो चुकेगा। गाड़ी से उतरते ही आप सबसे पहले कोर्ट चले जाइयेगा और पता लगा लीजियेगा कि श्रीइन्द्रनारायणजी द्विवेदी का केस किस कोर्ट में है। ज्यों ही उनके नाम की आवाज लगे, त्यों ही उनके रुपये आप जमा कर दीजियेगा। ऐसा न हो कि रुपयों के न पहुँचने से उनकी इज्जत में बट्टा लग जाय।

श्रीशुक्लाजी तत्काल चले गये और हुआ भी ऐसा ही जैसा श्रीभाईजी ने कहा था। इधर श्रीद्विवेदीजी के नाम की आवाज लगी और उधर श्रीशुक्लाजी कोर्ट के द्वार पर पहुँचे। श्रीशुक्लाजी ने तीन सौ रुपये जमा कर दिये। अपने जनकी प्रतिष्ठा का प्रश्न श्रीभाईजी का अपना प्रश्न होता था।

पं. श्रीरामनारायणदत्तजी शास्त्री

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